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एक भारतीय - डा. अम्बेडकर

एक महान भारतीय - डा. अम्बेडकर

एक मेधावी युवक अमेरिका व इंग्लैण्ड से उच्च शिक्षा प्राप्त करके – बैरिस्टर की डिग्री लेकर भारत आया। उसने बम्बई हाई कोर्ट में प्रैक्टिस की। उसकी वैधिक प्रकाण्डता का लोहा तो सभी ने मान लिया । उसे बड़े-बड़े मुकदमे मिले। फीस की मोटी-मोटी रकमें भी मिली किन्तु नहीं मिला उसे किराये का मकान। यही नहीं कचहरी के 'भाट' ने उसे पानी पिलाने से भी इन्कार कर दिया। इसका कारण एक ही था कि वह अछूत कहे जाने वाले परिवार महार जाति में उत्पन्न हुआ था।

  कोई और युवक होता तो वह कहता कि किन जंगलियों के बीच आ गया हूँ जिन्हें मनुष्य से व्यवहार करना भी नहीं आता और चल देता अमेरिका, इंग्लैण्ड या अन्य किसी देश और वहीं वकालत करता और खूब धन अर्जन करता मजे से रहता। जैसा कि आजकल के अधिकांश विदेश में शिक्षा पाने के लिए जाने वाले युवक करते हैं। वे सदा के लिए वहीं के बन जाते हैं। किन्तु इस युवक को इस देश की धरती से प्यार था, यहाँ की संस्कृति से प्यार था अतः यह सब सहते हुए भी यहाँ रहा। यह युवक थे डॉ. अम्बेडकर । जिन्हें अर्थशास्त्र व कानून के प्रकाण्ड विद्वान्, भारत के संविधान निर्माता, हरिजनों के प्रमुख नेता, एक सच्चे समाज सुधारक और महान् लेखक के रूप में स्मरण किया जाता है।

 डॉ. अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल सन् 1899 को वर्तमान मध्यप्रदेश तथा तत्कालीन इन्दौर रियासत में मऊ नामक स्थान पर एक महार सैनिक पिता के घर हुआ था। अछूत परिवार में पैदा होने के कारण बालक भीम को वे सब शारीरिक तथा मानसिक यन्त्रणा भुगतनी पड़ी जो उन दिनों इस वर्ग को भोगनी पड़ती थीं। आज भी यन्त्रणाएँ कम होते हुए भी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई हैं। आये दिन समाचार पत्रों में उक्त आशय के समाचार प्रकाशित होते ही रहते हैं तो उस समय की स्थिति कितनी भयंकर होगी इसकी कल्पना ही की जा सकती है।
 जब वे स्कूल पढ़ने जाते थे तो स्कूल का पानी पिलाने वाला चपरासी उन्हें पानी नहीं पीने देता था। स्वाभिमानी होने के कारण वे दिन भर प्यासे रह जाते किन्तु अपमानित होकर पानी पीना नहीं स्वीकारते। वे अपने को अन्य बालकों की तरह मानते थे और अपने समानता के अधिकार को पाने के लिए प्रयत्नशील रहा करते थे।

 अन्य बालकों की उपेक्षा तथा अपमानजनक व्यवहार ने उनके मन में पढ़-लिखकर ऐसा विद्वान् बनने का संकल्प जगा दिया जिसके बाद वे लोगों को मनवा सकें कि वे भी अन्य लोगों की तरह मनुष्य हैं। उन्हें समानता का पूरा-पूरा अधिकार है। वे उसे लेकर ही रहेंगे। इस संकल्प व उनकी कठोर साधना का परिणाम यह होता कि वे सवर्ण कहे जाने वाले विद्यार्थियों से सदा आगे रहते। इसी प्रकार उन्होंने शैक्षणिक योग्यता बढ़ाई।

 भारत में अपनी शिक्षा समाप्त कर वे विदेश गये। वहाँ उन्होंने खूब मन लगाकर पढ़ाई की ' वे घण्टों लाइब्रेरी में मन लगाकर पुस्तकें पढ़ा करते थे। पुस्तकालय के अधिकारी भी उनकी इस जिज्ञासुवृत्ति व ज्ञान-पिपासा को देखकर आश्चर्य करते । अन्त में वे बैरिस्टर बनकर भारत लौटे। इतना ज्ञान, इतनी डिग्रियाँ लेने के बाद भी भारतवासियों की संकीर्णता उन्हें जीवन भर परेशान करती रही।

 उनके जितनी डिग्रियां शायद ही किसी भारतीय ने अर्जित की हों। उन्होंने केम्ब्रिज विश्वविद्यालय से पी-एच. डी. तथा डी. एस-सी., कोलम्बिया विश्वविद्यालय से एल एल. डी. तथा उस्मानियाँ विश्वविद्यालय से डी. लिट की उपाधियाँ प्राप्त की थीं। पर वाह रे भारतवासियों की धुन खायी अक्ल कि उन्हें पग-पग पर अपमान व तिरस्कार ही सहना पड़ा।

जब वे बड़ौदा सिविल सर्विस के उच्च पदाधिकारी थे। तो उनके अधीन काम करने वाला एक चपरासी उनके द्वारा छुई गई फाइलों को चिमटे से पकड़कर रखा करता था। बम्बई में उन्हें किसी ने किराये का मकान नहीं दिया। एक पारसी ने उन्हें मकान दिया तो लोगों ने उस मकान का जला देने की धमकी दी जिससे उन्हें मकान खाली करना पड़ा।

 अब उनकी सहन शक्ति की सीमा का उल्लंघन हो चुका था। उन्होंने 'शठे शाठ्यं' की नीति अपनायी। महाराष्ट्र के कोलावा जिले के मदद गाँव में इसका उग्र रूप देखने को मिला। उन्होंने इन मिथ्याभिमानियों के साथ कड़ा संघर्ष करने की नीति अपनायी। उन्होंने दलित वर्ग को इस बात के लिए आह्वान किया कि उन्हें अपने अधिकारों के प्रति सजग होकर संघर्ष करते हुए उन्हें प्राप्त करना चाहिए। उनके इस आह्वान पर कई स्थानों पर हरिजनों ने संगठित होकर अपने समानता के मानवीय अधिकार को पाने के लिए संघर्ष किया जिसमें उन्हें आंशिक सफलता भी मिली। सच पूछा जाय तो अपने अधिकारों के लिए सजग होना निम्नवर्गीय लोगों ने उन्हीं की प्रेरणा से सीखा

 यो दलितोद्धार का शंखनाद स्वामी दयानन्द के भगीरथ प्रयासों से ही हो गया था फिर भी वह एक सवर्णों द्वारा हरिजनों के प्रति प्रदर्शित की गई दया ही बनकर रह गयी थी पीछे वालों के लिए महात्मा गाँधी तथा ठक्कर बापा आदि ने भी इस दिशा में बहुत कुछ किया। किन्तु अधिकार पाने के लिए संघर्षरत होने की जो अग्नि डॉ. अम्बेडकर ने जलाई वह अपने ढंग की एक ही मिसाल है। उनके सशक्त व्यक्तित्व में अछूतों को बड़ा बल मिला। उन्होंने स्थान-स्थान पर सार्वजनिक स्थलों के समान उपयोग के लिए आन्दोलन किये। नासिक के मन्दिर में प्रवेश करने तथा महद के तालाब से पानी भरने के आन्दोलन इतिहास प्रसिद्ध हो चुके हैं।

बहुत से लोग उन्हें आज भी केवल हरिजन समाज का नेता मानते हैं। यह वास्तव में हमारी संकीर्णता का ही परिचय है। उस विराट व्यक्तित्व पर हर कोई भारतवासी गर्व कर सकता है। कितने ही विदेशी लोगों ने उनकी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है जान ग्रन्थर ने अपनी पुस्तक 'एशिया के भीतर' में उनके विषय में लिखा है- "मैं उनके दादर स्थित निवास पर गया तो उनके पुस्तकालय को देखकर चकित रह गया उसमें ३५००० दुर्लभ पुस्तकें थीं। जिनके लिए उन्होंने पृथक भवन बना रखा था। उनकी बातों से पाण्डित्य का रस टपकता था और व्यवहार से शालीनता' """

 हाँ ! यह बात सही है हिन्दुओं में फैली जातीयता के विरुद्ध उन्होंने बहुत भाषण दिये, आन्दोलन किये यहाँ तक कि उन ग्रंथों को भी जलाया जिनमें जाति का समर्थन किया हुआ था। किन्तु उनका यह आक्रोश गलत नहीं था। वे भुक्तभोगी थे। उनकी तरह पढ़े-लिखे इंग्लैण्ड रिटर्न बैरिस्टर को यदि कचहरी का 'भाट' पानी पिलाने से मना कर देता है। एक आई. सी. एस. पदाधिकारी के नीचे काम करने वाला चपरासी फाइलों को चिमटे से उठाये मकान न मिले, ताँगे वाला जाति पूछ कर आधे रास्ते में ही उतार दे तो भला साधारण अनपढ़ अछूत के साथ क्या व्यवहार करता होगा यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है तो उन्होंने कौन-सा अपराध कर दिया।

 उन्होंने इन मान्यताओं की कटु आलोचना की। यहीं नहीं हरिजनों के अधिकारों के लिए माँग भी की। उन्हें हिन्दुओं से पृथक मानने के लिए भी मांग की। उनके ये कदम ठीक उस डॉक्टर की तरह के थे जो फोड़े का ऑपरेशन करता है। उसे रोगी से कोई दुश्मनी नहीं होती वह तो उसे स्वस्थ करना चाहता है। किन्तु उसका चीर फाइ का काम रोगी को कुछ समय के लिए बुरा लग सकता है। ठीक यही काम उन्होंने किया था।

 इतना करने पर भी हिन्दू समाज की आंखें नहीं खुली तो उन्होंने एक नश्तर और लगाया १४ अक्टूबर १९५६ का नागपुर की भरी सभा में उन्होंने हिन्दू धर्म को त्याग कर बौद्ध धर्म को अंगीकार कर लिया। यह वस्तुतः कोई धर्म परिवर्तन नहीं था। बौद्ध धर्म हिन्दू धर्म संस्कृति की ही एक शाखा हैं। वे इस परिवर्तन के द्वारा यह बताना चाहते थे कि यदि हिन्दू अपनी संकीर्णता नहीं छोड़ेंगे तो उनकी यह स्थिति होने वाली है। जिस संस्कृति के झंडे, कभी पूर्वी दीप समूह से लेकर उजबेकिस्तान तक गढ़े थे वह सिमटकर कुछ ही करोड़ सीमा में रह जायेगी। दो लाख अनुयाइयों के एक साथ एक ही दिन धर्म परिवर्तन करने का यह झटका कम नहीं था

 डॉ. भीमराव अम्बेडकर अर्थशास्त्र के प्रतिष्ठित विद्वान् थे । उन्होंने लन्दन विश्वविद्यालय में डी. एस. सी. के लिए जो शोध प्रबन्ध प्रस्तुत किया उसमें उन्होंने यह स्पष्ट किया कि विदेशी शासक किस प्रकार रुपये तथा पौण्ड का असंतुलित सम्बन्ध स्थापित करके मनमाना लाभ कमा रहे हैं। उस शोध प्रबन्ध के प्रकाश में आने पर भारतीय प्रान्तीय विधान सभाओं ने इस अर्थनीति के विरोध में आवाज बुलन्द की अन्ततः अग्रेज सरकार को अपनी यह भेदभरी अर्थनीति बदलनी पड़ी थी।

 वे पक्के राष्ट्रवादी थे यह नहीं चाहते हुए भी कि वे अछूत 'स्थान पृथक' लें। विभाजन के पूर्व यह बात कहीं थी— 'अगर मुस्लिम लीग की देश विभाजन की माँग स्वीकार की जाती है तो भारत की अखण्ड बने रहने की सम्भावना बिल्कुल नहीं रहेगी । और ऐसी स्थिति में अछूत वर्ग नया मोर्चा बना ले तो इसकी पूरी जिम्मेदारी काग्रेस पर रहेगी।' उनके इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि भारत के टुकड़े नहीं होने देना चाहते थे अछूत स्थान पृथक लेने का उनका इरादा नहीं था वे तो पाकिस्तान बनने का विरोध कर रहे थे।

 उनके मुकाबले का विधिवेत्ता भारत में न उनके समय में था न आज है। संविधान सभा की प्रारूप समिति के वे अध्यक्ष अपनी इसी योग्यता के कारण बनाये गये थे। भारत के प्रथम विधि मन्त्री के रूप में उन्होंने हिन्दू कोड बिल को एक-दो धाराओं के रूप में करके पास कर ही दिया। इस प्रकार पुरातन पंथ से निकाल कर उन्होंने हिन्दुओं को एक प्रगतिशील मार्ग पर ला खड़ा किया। नारी को समानता का वैधानिक अधिकार वे दिलाकर ही रहे। अपने शोध प्रबन्धों के कारण उन्होंने विश्व स्तर पर ख्याति तो अर्जित की ही थी साथ ही वे अच्छे लेखक भी थे। उन्होंने अर्थशास्त्र, राजनीति, अछूतोद्धार, कानून तथा सामयिक सन्दर्भों पर उत्तमोत्तम पुस्तकें लिखी हैं जिनमें उनकी विद्वता सर्वत्र परिलक्षित होती है।

५ दिसम्बर १९५६ को वे सदा के लिए प्रयाण कर गए। उनका यह व्यक्तित्व सामान्यजन के लिए कम प्रेरक नहीं है कि एक साधारण स्थिति का बालक पग-पग पर अपमान, तिरस्कार पाता हुआ भी व्यक्तित्व की ऊंचाइयों को छूता रहा। समाज सुधारक और दलित बन्धु के रूप में उन्हें तो जाना जाता ही है वे भारतीय संस्कृति व भारत देश के बहुत बड़े सपूत के रूप में भी स्मरण किये जाते रहेंगे।

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1 Comments

Varsha_Upadhyay

04-Sep-2023 09:57 PM

V nice 👌

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